देश के बाघ संरक्षण प्रयासों को प्राथमिकता देने के लिए पहली बार जीनोम-व्याइपी डेटा का उपयोग किया गया है। डीबीटी द्वारा समर्थित नेचर साइंटिफिक रिपोर्ट में एक शोधपत्र प्रकाशन में आनुवंशिक रूप से जुड़ी आबादी की पहचान तथा संरक्षण हेतु उनके अंदर आपसी संपर्क बनाए रखने के तरीके तैयार किए गए हैं ताकि आज भी उपलब्ध सीमित संरक्षित क्षेत्र में प्रभावी संरक्षण प्रयासों को पूरा किया जा सके।
अपनी प्राचीन श्रेणी के 93% समाप्ती हो चुके बाघों के साथ बाघों का संरक्षण दुनिया भर में एक अंतरराष्ट्रीय चिंता का विषय है। बाघों के संरक्षण में भारत की एक महत्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि यहां वर्तमान में लगभग 60% जंगली बाघ पाए जाते हैं। हालांकि, संरक्षित क्षेत्र छोटे हैं और प्रत्येक क्षेत्र में केवल कुछ ही जंतु पाए जाते हैं, इनमें से कई स्वतंत्र रूप से व्यवहार्य नहीं होते हैं। अत: यह आनुवंशिक रूप से जुड़ी हुई आबादी की पहचान और उन्हें संरक्षित करने के साथ ही उनके अंदर संपर्क बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है।
पांच वर्ष से कार्य करने वाले एक बहु-संस्थागत दल द्वारा तैयार किए गए एक विस्तृत ब्यौ रे में प्रकाश डाला गया कि उत्तर-पश्चिमी भारत में बाघों की आबादी के लिए इन बाघों का स्थातयित्वह सुनिश्चित करने के लिए उनके संरक्षण का ध्यान रखना आवश्यक है।
दल ने 17 संरक्षित क्षेत्रों में 38 बाघों के 10,184 एसएनपी का निर्धारण किया और आनुवंशिक रूप से अलग तीन क्लस्टर (उत्तर-पश्चिमी, दक्षिणी और मध्य भारत के संगत) की पहचान की। उन्होंने भारत में बाघों के लिए आनुवंशिक समूहों की जांच की, इन आनुवंशिक समूहों में आनुवंशिक विविधता किस प्रकार वितरित की जाती है और क्या इन समूहों में अंतर स्थानीय अनुकूलन के कोई संकेत हैं, इसका पता लगाया।
उत्तर-पश्चिमी क्लस्टर को कम भिन्नता और उच्च संबंधित होने से पृथक किया गया था। भौगोलिक दृष्टि से बड़े केंद्रीय क्लस्टर में मध्य, पूर्वोत्तर और उत्तरी भारत शामिल हैं और इनमें सबसे अधिक भिन्नता थी। अधिकांश आनुवांशिक विविधता (62%) समूहों के बीच साझा की गई थी, जबकि केंद्रीय क्लस्टर (8.5%) में अनूठी भिन्नता सबसे अधिक थी और उत्तर पश्चिमी एक (2%) में सबसे कम है। रणथंबोर बाघ आरक्षित वनों अर्थात उत्तर-पश्चिम क्लस्टर वर्तमान में एक संख्या द्वारा इसका प्रतिनिधित्व किया जाता है। लेखकों ने अवकल चयन या स्थानीय अनुकूलन के संकेतों का पता नहीं लगाया।
अध्ययन में बाघ की आबादी के विविधीकरण के पीछे कारणों की जांच की गई और बाघ संरक्षण की कार्यनीतियों के तरीके बताए गए। यह डीबीटी द्वारा समर्थित वाटरलाइफ स्टडीज (सीडब्ल्यूएस) और नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज (एनसीबीएस) में किया गया 5 वर्ष का एक अध्ययन था। इसमें यह भी संकेत दिया गया कि एक अध्ययन की सफलता के लिए किस प्रकार कई पणधारकों के समर्थन की आवश्यकता है।
विभिन्न एजेंसियों और वैज्ञानिकों के सामूहिक कार्य के माध्यम से अनुसंधान संभव था। कर्नाटक, केरल, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश, असम, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और महाराष्ट्र के वन विभागों ने नमूने प्राप्त करने में मदद की।
द सेंटर सेल्युलर एंड मॉलिक्यु लर प्लेटफार्म (सी-सीएएमपी) ने इलुमिना अनुक्रमण कार्य के लिए सुविधा प्रदान की। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण और पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने परियोजना के लिए अनुमति प्रदान की और उन्हेंर अपना समर्थन दिया।
उमा रामकृष्णन, राष्ट्रीय जैविक विज्ञान केंद्र में वैज्ञानिक, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च, बैंगलोर और एक वरिष्ठ अध्येाता, वेलकम ट्रस्ट / डीबीटी इंडिया एलायंस और सस्ट्रा विश्वविद्यालय में पीएच डी छात्रा, मेघना नटेश ने राष्ट्रीय और जैविक विज्ञान में अनुसंधान करने के लिए शोध किया था। वे आशा करते हैं कि इस कार्य से आने वाले वर्षों में बाघ संरक्षण के मार्गदर्शन में मदद मिलेगी।